ज़ख़्मों के नए फूल खिलाने के लिए आ फिर मौसम-ए-गुल याद दिलाने के लिए आ मस्ती लिए आँखों में बिखेरे हुए ज़ुल्फ़ें आ फिर मुझे दीवाना बनाने के लिए आ अब लुत्फ़ इसी में है मज़ा है तो इसी में आ ऐ मिरे महबूब सताने के लिए आ आ रख दहन-ए-ज़ख़्म पे फिर उँगलियाँ अपनी दिल बाँसुरी तेरी है बजाने के लिए आ हाँ कुछ भी तो देरीना मोहब्बत का भरम रख दिल से न आ दुनिया को दिखाने के लिए आ माना कि मिरे घर से अदावत ही तुझे है रहने को न आ आग लगाने के लिए आ प्यारे तिरी सूरत से भी अच्छी है जो तस्वीर मैं ने तुझे रक्खी है दिखाने के लिए, आ आशुफ़्ता कहे है कोई दीवाना कहे है मैं कौन हूँ दुनिया को बताने के लिए आ कुछ रोज़ से हम शहर में रुस्वा न हुए हैं आ फिर कोई इल्ज़ाम लगाने के लिए आ अब के जो वो आ जाए तो 'आजिज़' उसे ले कर महफ़िल में ग़ज़ल अपनी सुनाने के लिए आ