जला के दामन-ए-हस्ती का तार तार उठा कभी जो नाला-ए-ग़म दिल से शो'ला-बार उठा ख़्याल-ओ-फ़िक्र-ओ-तमन्ना का ख़ून छुप न सका ज़बाँ ख़मोश थी लेकिन लहू पुकार उठा फ़लक पे जब भी हक़ाएक़ की सुर्ख़ियाँ उभरीं ज़मीं से कोहना रिवायात का ग़ुबार उठा रवाँ-दवाँ है रग-ए-संग में लहू की तरह वो ज़िंदगी का तलातुम जो बार बार उठा रह-ए-हयात में जब डगमगाए मेरे क़दम मिरा ही नक़्श-ए-कफ़-ए-पा मुझे पुकार उठा फ़रेब-ए-वादा-ए-फ़र्दा का ज़िक्र क्या कीजे वो मो'तबर ही थे कब जिन का ए'तिबार उठा 'फ़रीद' अहल-ए-गुलिस्ताँ भी होश खो बैठे कुछ इस अदा से हिजाब-ए-रुख़-ए-बहार उठा