जले हैं दिल न चराग़ों ने रौशनी की है वो शब-परस्तों ने महफ़िल में तीरगी की है हदीस-ए-ज़ुल्म-ओ-सितम है हनूज़ ना-गुफ़्ता हनूज़ मोहर ज़बानों पे ख़ामुशी की है उस एक जाम ने साक़ी की जो अता ठहरा सुकूँ दिया है न कुछ दर्द में कमी की है हमें ये नाज़ न क्यूँ हो कि नय-नवाज़ हैं हम हमारे होंटों ने ईजाद नग़्मगी की है चमन में सिर्फ़ हमीं राज़दाँ हैं काँटों के गुलों के साथ बसर हम ने ज़िंदगी की है फ़िराक़-ए-यार ने बख़्शी है वस्ल की लज़्ज़त ख़याल-ए-यार ने ज़ुल्मत में रौशनी की है हैं जिस की दीद से महरूम आज तक 'ख़ावर' उसी की हम ने तसव्वुर में बंदगी की है