नहीं हो तुम तो हर शय अजनबी मा'लूम होती है बहार-ए-ज़िंदगी काँटों भरी मा'लूम होती है चराग़-ए-ज़ीस्त की लौ थरथराती है चले आओ मुझे हर साँस अपनी आख़िरी मा'लूम होती है बताऊँ क्या तुम्हारी चश्म-ए-उल्फ़त की असर-रेज़ी रग-ओ-पै में उतरती बर्क़ सी मा'लूम होती है सितम मुझ पर उसी अंदाज़ से पैहम किए जाओ तुम्हारी दुश्मनी भी दोस्ती मा'लूम होती है जहाँ देखा किसी ने भी हमें चश्म-ए-मोहब्बत से पलट कर ज़िंदगी आई हुई मा'लूम होती है तवाफ़-ए-दैर-ओ-का'बा से यही हासिल हुआ मुझ को मोहब्बत ही सरापा बंदगी मा'लूम होती है 'जलील' इक शम-ए-हसरत बुझ गई तो ग़म नहीं इस का अभी दाग़-ए-जिगर में रौशनी मा'लूम होती है