ज़ालिम ये ख़मोशी बेजा है इक़रार नहीं इंकार तो हो इक आह तो निकले तोड़ के दिल नग़्मे न सही झंकार तो हो हर साँस में सदहा नग़्मे हैं हर ज़र्रे में लाखों जल्वे हैं जाँ महव-ए-रुमूज़-ए-साज़ तो हो दिल जल्वा-गह-ए-अनवार तो हो शाख़ों की लचक हर फ़स्ल में है साक़ी की झलक हर रंग में है साग़र की खनक हर ज़र्फ़ में है मख़्मूर तो हो सरशार तो हो क्यूँकर न शब-ए-मह रौशन हो क्यूँ सुब्ह न दामन चाक करे कुछ वस्फ़-ए-रुमूज़-ए-हुस्न तो हो कुछ शरह-ए-जमाल-ए-यार तो हो सीने में ख़ताएँ मुज़्तर हैं इनआम का वो इक़रार करें मंसूर हज़ारों अब भी हैं ऐ 'जोश' सिले में दार तो हो