जलता रहा चराग़ यक़ीन-ओ-गुमान का लेकिन हुआ न दूर अंधेरा मकान का गंदुम की बालियों से बहुत रौशनी हुई इस रौशनी से क़र्ज़ न उतरा किसान का आँचल किसी का तेज़ हवा ने उड़ा दिया कश्ती से राब्ता न रहा बादबान का ज़ख़्म-ए-नवाज़िशात महकता रहा सदा देखा कोई गुलाब न इस आन-बान का 'फ़ाख़िर' जमी हुई है अभी तक वहीं निगाह मलबा पड़ा हुआ है जहाँ उस मकान का