जलता रहा वो उम्र-भर अपनी ही आग में तेरे लबों की आँच न थी जिस के भाग में छोटी सी बात थी मगर इक रोग बन गई राहत मिलाप ही में रही है न त्याग में कैसे कहूँ उसे ये दुल्हन है बहार की फूलों का ख़ूँ महकता है जिस के सुहाग में वो हुस्न बन के गुल की तपिश में समा गया हँस हँस के जल गया जो तिरे ग़म की आग में कहने को मेरा साज़ है लेकिन किसे ख़बर किस किस की धुन समाई है एक एक राग में इक दाग़ बन के दिल में सुलगता है ऐ 'सलाम' वो फूल जिस का लम्स नहीं अपने भाग में