ज़माने के दरबार में दस्त-बस्ता हुआ है ये दिल उस पे माइल मगर रफ़्ता रफ़्ता हुआ है अचानक ही हथियार वाले नहीं सख़्त-जाँ ने जिगर वक़्त के साथ ख़स्ता शिकस्ता हुआ है कहीं अंदर अंदर सुलगती थी चिंगारी कोई मगर हादसा आख़िर-ए-कार शाम-ए-गुज़िश्ता हुआ है कई बार जल्लाद ने खींच देखा है उस को मगर मुंजमिद दार का सर्द तख़्ता हुआ है ख़बर-दार रहने लगा शहरयार उस से 'यासिर' क़लम मेरे हाथों में ख़ंजर का दस्ता हुआ है