ज़मान-ए-हिज्र मिटे दौर-ए-वस्ल-ए-यार आए इलाही अब तो ख़िज़ाँ जाए और बहार आए सितम-ज़रीफ़ी-ए-फ़ितरत ये क्या मुअ'म्मा है कि जिस कली को भी सूंघूँ मैं बू-ए-यार आए चमन की हर कली आमादा-ए-तबस्सुम है बहार बन के मिरी जान-ए-नौ-बहार आए हैं तिश्ना-काम हम उन बादलों से पूछे कोई कहाँ बहार की परियों के तख़्त उतार आए तिरे ख़याल की बे-ताबियाँ मआ'ज़-अल्लाह कि एक बार भुलाएँ तो लाख बार आए वो आएँ यूँ मिरे आग़ोश-ए-इश्क़ में 'अख़्तर' कि जैसे आँखों में इक ख़्वाब-ए-बे-क़रार आए