बुलाओ उस को ज़बाँ-दाँ जो 'मज़हरी' का हो मगर है शर्त कि इक्कीसवीं सदी का हो यक़ीं वही है जो आग़ोश-ए-तीरगी में मिले सवाद-ए-वहम में हम-साया रौशनी का हो बुतों को तोड़ के ऐसा ख़ुदा बनाना क्या बुतों की तरह जो हम-शक्ल आदमी का हो मिरा ग़ुरूर न क्यूँ हो सुरूर से ख़ाली जब उस के भेस में इक चोर कम-तरी का हो बहुत बजा है ये मज़हब की मौत पर मातम मगर कोई तो अज़ा-दार शायरी का हो है वक़्त वो कि मुसल्लम हो आज़री उस की सनम-कदों में सनम ज़ेहन 'मज़हरी' का हो