क्या क्या दिए फ़रेब हर इक ए'तिबार ने अपना बना दिया है तिरे इंतिज़ार ने क्या जाने कितने अहल-ए-तरीक़त को आज तक गुमराह कर दिया है तिरे रहगुज़ार ने कुछ उन की जुस्तुजू है न कुछ अपनी गुफ़्तुगू ये क्या बना दिया सितम-ए-रोज़गार ने हाँ ऐ निगाह-ए-गर्म न कर मुख़्तसर हयात हम को हज़ार बोझ अभी हैं उतारने उलझे हुए हैं गेसू-ए-जानाँ में आज तक 'आली' चले थे काकुल-ए-गीती सँवारने