ज़मीन अपने ही मेहवर से हट रही होगी वो दिन भी दूर नहीं ज़ीस्त छट रही होगी बढ़ा रहा है ये एहसास मेरी धड़कन को घड़ी में सूई की रफ़्तार घट रही होगी मैं जान लूँगा कि अब साँस घुटने वाला है हरे दरख़्त से जब शाख़ कट रही होगी नए सफ़र पे रवाना किया गया है तुम्हें तुम्हारे पाँव से धरती लिपट रही होगी ग़लत कहा था किसी ने ये गाँव वालों से चलो कि शहर में ख़ैरात बट रही होगी फ़लक की सम्त उछाली थी जल-परी मैं ने सितारे हाथ में ले कर पलट रही होगी बदन में फैल रही है ये काएनात 'आज़र' हमारी आँख की पुतली सिमट रही होगी