ज़मीन दिल पे नई खुलती है अदा-ए-सुख़न कि हम कुछ और ही जानें हैं मावारा-ए-सुख़न फ़साना-ए-दिल-ओ-जाँ किस पे बार होता है मगर कभी तो सुख़न चाहिए बरा-ए-सुख़न उसी पे खुलते हैं आराइश-ए-ख़याल के दर है जिस के अक़्द-ए-इरादत में दिल-रुबा-ए-सुख़न तिरे बग़ैर भी ये गुफ़्तुगू मुकम्मल है तिरे बग़ैर भी ख़ाली नहीं सरा-ए-सुख़न सजे-सजाए मकाँ पल में हो गए मिस्मार बयान-ए-दर्द की किस तरह ताब लाए सुख़न ब-जुज़ हवा-ए-हुनर कुछ नहीं मता-ए-हयात हमारे बा'द कहेंगे सभी कि हाए सुख़न