ज़मीं कहीं भी न थी चार-सू समुंदर था किसे दिखाते बड़ा हौल-नाक मंज़र था लुढ़क के मेरी तरफ़ आ रहा था इक पत्थर फिर एक और फिर इक और बड़ा सा पत्थर था फ़सीलें दिल की गिराता हुआ जो दर आया वो कोई और न था ख़्वाहिशों का लश्कर था बुला रहा था कोई चीख़ चीख़ कर मुझ को कुएँ में झाँक के देखा तो मैं ही अंदर था बहुत से हाथ उग आए थे मेरी आँखों में हर एक हाथ में इक नोक-दार ख़ंजर था वो जंगलों में दरख़्तों पे कूदते फिरना बुरा बहुत था मगर आज से तो बेहतर था हमारे वास्ते 'अल्वी' के शेर क्या कम हैं चलो क़ुबूल कि 'ग़ालिब' बड़ा सुख़न-वर था