ज़मीं की कोख से पहले शजर निकालता है वो उस के बा'द परिंदों के पर निकालता है शब-ए-सियाह में जुगनू भी इक ग़नीमत है ज़रा सा हौसला अंदर का डर निकालता है कि बूढे पेड़ के तेवर बदलने लगते हैं कहीं जो घास का तिनका भी सर निकालता है फिर उस के बा'द ही देता है काम की उजरत हमारे ख़ून से पहले वो ज़र निकालता है वज़ीफ़ा तुझ को बताता हूँ एक चाहत का जो क़स्र-ए-ज़ात से नफ़रत का शर निकालता है कहानी लिखता है ऐसे कि उस का हर किरदार निकलना कोई न चाहे मगर निकालता है मैं ऐसे शख़्स से 'अरशद' गुरेज़ कैसे करूँ फ़सील-ए-दिल में जो दस्तक से दर निकालता है