ज़मीं पर रौशनी ही रौशनी है ख़ला में इक किरन गुम हो गई है मैं तन्हा जा रहा हूँ सू-ए-मंज़िल ये परछाईं कहाँ से आ रही है ये शाम और रौशनी की ये क़तारें उदासी और गहरी हो गई है उरूज-ए-माह है और मक़बरों पर अबद की चाँदनी चटकी हुई है उभार ऐ मौज-ए-तूफ़ाँ-ख़ेज़ मुझ को ये कश्ती रेत में डूबी हुई है हवा से है कली जुम्बाँ सर-ए-शाख़ ये किन हाथों में नेज़े की अनी है गिरा है शाख़-ए-गुल से एक पता किसी ने क्या मुझे आवाज़ दी है