ज़मीं वालों की बस्ती में सुकूनत चाहती है मिरी फ़ितरत सितारों से इजाज़त चाहती है अजब ठहराव पैदा हो रहा है रोज़ ओ शब में मिरी वहशत कोई ताज़ा अज़िय्यत चाहती है मैं तुझ को लिखते लिखते थक चुका हूँ मेरी दुनिया मिरी तहरीर अब थोड़ी सी फ़ुर्सत चाहती है उधर मुँह-ज़ोर मौजें दनदनाती फिर रही हैं मगर इक नाव दरिया से बग़ावत चाहती है