ज़मीन-ए-चश्म में बोए थे मैं ने ख़्वाब के बीज मगर उगे तो खुला वो थे इज़्तिराब के बीज मुझे ही काट के मिट्टी में गाड़ना होगा कि कौन देगा मिरी जाँ तुम्हें गुलाब के बीज ज़मीं पे ऐसे चमकते हैं रेत के ज़र्रे किसी ने जैसे बिखेरे हों आफ़्ताब के बीज वो मेरी रूह में उतरा तो कब गुमान भी था दबा रहा है मिरी रूह में अज़ाब के बीज तमाम उम्र कटी इक फ़रेब में 'अज़्मी' बिखेर कर वो गया दूर तक सराब के बीज