जंग से जंगल बना जंगल से मैं निकला नहीं हो गया ओझल मगर ओझल से मैं निकला नहीं दावत-ए-उफ़्ताद रक्खी छल से मैं निकला नहीं निकले भी कस-बल मगर कस-बल से मैं निकला नहीं देखते रहना तिरा मसहूर छत पर कर गया इस क़दर बारिश हुई जल-थल से मैं निकला नहीं जैसे तू ही तो हो मेरी नींद से लिपटा हुआ जैसे तेरे ख़्वाब के मख़मल से मैं निकला नहीं देखने वालों को शहर-ए-ख़्वाब सा दिखता हूँ मैं जैसे तेरे सुरमई बादल से मैं निकला नहीं देख सूरज आ गया सर पर मुझे आवाज़ दे फूल सा अब तक तिरी कोंपल से मैं निकला नहीं शब जो ऐमन राग में डूबी सहर थी भैरवी तेवरी चढ़ती रही कोमल से मैं निकला नहीं तेरा पल्लू एक झटके से गया गो हाथ से आँच लिपटी है कि जूँ आँचल से मैं निकला नहीं अपने मरकज़ की महक चारों तरफ़ बिखराई है फड़फड़ा कर भी तिरे संदल से मैं निकला नहीं तब्अ की पेचीदगी शायद मिरी पहचान हो यूँ न हो हो मुस्तक़िल जिस बल से मैं निकला नहीं नाम लिक्खा था मिरा मैं ने तो अपनाना ही था एक लम्हे के लिए भी पुल से मैं निकला नहीं यूँ लगा जैसे कभी मैं दहर का हिस्सा न था बात इतनी है कि बाहर कल से मैं निकला नहीं हौसले जैसे डुबो डाले हैं इस परदेस ने रीछ निकला नद्दी से कम्बल से मैं निकला नहीं मैं ने कोई आत्मा अन-चाही आने ही न दी कैसे कह दूँ अपनी ही दलदल से मैं निकला नहीं इस के होते एक शब रौशन हुआ जल पर 'नवेद' चल दिया वो तो कभी का जल से मैं निकला नहीं