जंगलों में बारिशें हैं दूर तक जिस्म में फिर वहशतें हैं दूर तक रास्तों में छुप गईं रातें कहीं ख़्वाब-गह में आहटें हैं दूर तक क़ुर्ब के लम्हों की हैराँ कोख में कुछ बिछड़ती साअतें हैं दूर तक वो कहीं गुम हो कहीं मिल जाऊँ मैं धुँद जैसी चाहतें हैं दूर तक घुल रही है जिस्म में तन्हा हवा फुर्क़तों में फ़ुर्क़तें हैं दूर तक ज़र्द पत्ते शाम फिर बिखरा गई साँस लेती हिजरतें हैं दूर तक डस गई है पेड़ को भीगी हवा शाख़ पर नीलाहटें हैं दूर तक ग़र्क़ होते शहर की जाँ से अलग पानियों पर राहतें हैं दूर तक कितनी बातें अन-कही सी रह गईं नुत्क़-ए-जाँ में हैरतें हैं दूर तक