ज़ंजीर-ए-पा से आहन-ए-शमशीर है तलब शायद तिरी गली में न पहुँचे ये शोर अब आख़िर झलक उठी वो गरेबाँ के चाक से जिस इंतिज़ार-ए-सुब्ह में गुज़री थी मेरी शब याद आई दिल को तेरे दर-ए-नीम-वा की रात रुकने लगे क़दम जो सर-ए-राह बे-सबब ये शानदर-ए-दिलबरी है कि वो जब भी मिल गया पाया मिज़ाज-ए-दोस्त को आसूदा-ए-तरब इस ताज़ा-दम हवा में मिरे माह-ए-नीम-माह उस बाम से जुदा न कभी हो तुलू-ए-शब आँखें तो खोल दौर-ए-तग़य्युर है हम-नशीं कुछ खिड़कियाँ तो खोल गई है हवा-ए-शब चलने को है हवा-ए-गुल-ओ-लाला की जगह इक नक़्ब सी लगाती हुई सरसर-ए-अक़ब आँखों पे एक जादू-ए-ज़ुल्मत सा छा गया हौल-आफ़रीं हय्यूलों के जुम्बिश में आए लब काज़िब सहाफ़तों की बुझी राख के तले झुलसा हुआ मिलेगा वरक़-दर-वरक़ अदब दुनिया बदल गई है हिसाब और हो गए रम्ज़-ए-तग़य्युर-ए-रुख़-ए-आलम हुए हैं सब सदियों में जा के बनता है आख़िर मिज़ाज-ए-दहर 'मदनी' कोई तग़य्युर-ए-आलम है बे-सबब