ज़रा से दौरानिए की उल्फ़त को जावेदाना बना रहा हूँ मैं एक बालिश्त भर मोहब्बत से इक फ़साना बना रहा हूँ मुझे वफ़ाओं के क़हत का एक सख़्त मौसम गुज़ारना है मोहब्बतों को हनूत कर के निगार-ख़ाना बना रहा हूँ जो पर कटे मस्लहत-पसंदी में शाख़-ए-दिल पर रुके हुए थे मैं उन परिंदों से सादा-लौही में दोस्ताना बना रहा हूँ ग़ज़ब की चिंगारियाँ तो दिलदारियों की शबनम से सर्द होंगी मैं तल्ख़ लहजों को नर्म लफ़्ज़ों से मुश्फ़िक़ाना बना रहा हूँ हवा तनाबें उखेड़ डाले कि साएबाँ को उधेड़ डाले मैं ख़ौफ़ से बे-नियाज़ हो कर ये आशियाना बना रहा हूँ जहाँ मैं अब ख़ेमा-ज़न हुआ था वहाँ से चश्मा उबल पड़ा है सो मुख़्तसर से पड़ाव को मुस्तक़िल ठिकाना बना रहा हूँ