ज़र्द मौसम में भी इक शाख़ हरी रहती है दिल के गुलशन में कोई सब्ज़ परी रहती है तिश्ना-लब कौन है वो जिस के लिए नहर-ए-फ़ुरात मेरी पलकों की मुंडेरों पे धरी रहती है मुस्तक़िल ख़ाना-बदोशी का कोई अज्र नहीं पाँव से लिपटी मिरे दर-ब-दरी रहती है ऐ मिरे दिल के मकीं कुछ नहीं तब्दील हुआ तुम जहाँ रहते थे शोरीदा-सरी रहती है जिस्म के भेद तो खुल जाते हैं धीरे धीरे रूह से रूह की तो पर्दा-दरी रहती है दोस्त हो जाता मिरा सारा ज़माना 'हाशिम' मेरे होंटों पे मगर बात खरी रहती है