ज़ेर-ए-ज़मीं उतर गए या सर-ए-आसमाँ गए पेश-रवान-ए-राह-ए-ज़ीस्त कौन कहे कहाँ गए कोई रहा न आस पास ऐ दिल-ए-दोस्त-ना-शनास छोड़ के तुझ को महव-ए-यास सब तिरे मेहरबाँ गए अर्सा-ए-आरज़ू में थीं यूँ तो हज़ार वुसअ'तें तेरे क़रीब ही रहे अहल-ए-वफ़ा जहाँ गए होश के मरहलों में इक मरहला-ए-जुनूँ भी था वादी-ए-वह्म से सभी फ़िक्र के कारवाँ गए जब भी हवा-ए-दश्त ने अहल-ए-जुनूँ को दी सदा मौज-ए-शमीम-ए-गुल के साथ हम भी कशाँ कशाँ गए कैसे वो लोग थे जिन्हें बे-ख़बरी क़ुबूल थी हम तो जुनून-ए-आगही ले के गए जहाँ गए अहद-ए-जुनूँ के मश्ग़ले वक़्त ने सब बदल दिए शौक़ की लग़्ज़िशें गईं ज़ब्त के इम्तिहाँ गए आख़िर-ए-कार ख़ामुशी ही से खुले दिलों के राज़ हर्फ़-ए-सुख़न ज़बाँ पे जो आए थे राएगाँ गए होश की जुरअतें तमाम हद्द-ए-यक़ीं पे रुक गईं ख़ल्वत-ए-नाज़ तक तिरी सिर्फ़ मिरे गुमाँ गए ज़ह्न की चोब-ए-ख़ुश्क को फूँक गई सुख़न की आँच दूद-ए-नवा के दाएरे जाने कहाँ कहाँ गए