ज़रूरत कुछ ज़ियादा हो न जाए समुंदर और गहरा हो न जाए ये धुन ये मौज ले डूबे न मुझ को बगूला ग़र्क़-ए-सहरा हो न जाए हवाएँ सर-बरहना फिर रही हैं क़बा-ए-गुल तमाशा हो न जाए अभी कुछ तीर तरकश में भी होंगे पुराना ज़ख़्म अच्छा हो न जाए क़यामत की घड़ी है आज सूरज सवा नेज़े से ऊँचा हो न जाए वही इम्कान जिस से डर रहे हैं वही इम्कान पैदा हो न जाए मिरी हर बात सच्ची हो रही है 'नजीब' इक हश्र बरपा हो न जाए