जान-ए-सुख़न भी मुद्दआ'-ए-रूह भी वो शख़्स है मद्दाह भी ममदूह भी ज़ौक़-ए-तमन्ना से तिरे सरशार दिल तीर-ए-तग़ाफ़ुल से मगर मजरूह भी दिल को अज़िय्यत दे के यूँ सरकश न हो तूफ़ाँ न ले आए कहीं ये नूह भी अंधेर है माल-ए-ग़नीमत जान कर लूटी गई है इस्मत-ए-मफ़्तूह भी किस ख़ानमाँ-बर्बाद में फूँका हमें ये सोचती होगी हमारी रूह भी