ज़ुल्फ़ ज़ंजीर-ए-पा हुई जब से हम असीर-ए-मआश हैं तब से मदरसों ने बना दिया नौकर उम्र सारी गँवाई इस ढब से पेट की आग क्यों नहीं बुझती जुस्तुजू कर रहे हैं हम कब से हम फ़क़त माँग कर ही जीते हैं काश ग़ैरत भी माँग लें रब से इस को दौलत ने क्या उठाना है गिर गया जो हया के मरकब से ख़त्म-ए-क़ुरआँ है नेकियों के लिए हम को मतलब नहीं है मतलब से शैख़-ओ-सूफ़ी उठा के चंग-ओ-रुबाब देख लड़ने चले हैं मरहब से तीरगी में जला के दीप नए दुश्मनी ले रहे हैं हम सब से तुम उजालों की बात मत करना तीरगी शह के साथ है अब से छोड़ 'नक़्क़ाश' हर्फ़-ए-सच्चाई लोग ख़ाइफ़ हैं तेरे मज़हब से