ज़ुल्फ़ को अब्र का टुकड़ा नहीं लिख्खा मैं ने आज तक कोई क़सीदा नहीं लिख्खा मैं ने जब मुख़ातब किया क़ातिल को तो क़ातिल लिख्खा लखनवी बन के मसीहा नहीं लिख्खा मैं ने मैं ने लिख्खा है उसे मर्यम ओ सीता की तरह जिस्म को उस के अजंता नहीं लिख्खा मैं ने कभी नक़्क़ाश बताया कभी मेमार कहा दस्त-फ़नकार को कासा नहीं लिख्खा मैं ने तू मिरे पास था या तेरी पुरानी यादें कोई इक शेर भी तन्हा नहीं लिख्खा मैं ने नींद टूटी कि ये ज़ालिम मुझे मिल जाती है ज़िंदगी को कभी सपना नहीं लिख्खा मैं ने मेरा हर शेर हक़ीक़त की है ज़िंदा तस्वीर अपने अशआर में क़िस्सा नहीं लिख्खा मैं ने