ज़वाल-ए-अज़्मत-ए-इंसाँ का मर्सिया हूँ मैं सर-ए-कशीदा पे दस्तार-ए-बे-अना हूँ मैं सग-ए-ज़माना से आगे निकल गया हूँ मैं अब अपने सामने तन्हा खड़ा हुआ हूँ मैं मिरे वजूद में दर आया कैसा सन्नाटा कि रेग-ज़ार में गुम-गश्ता इक सदा हूँ मैं डुबो न दे कहीं मुझ को भी तिश्नगी का सफ़र कि रेग रेग सराबों का सिलसिला हूँ मैं इधर से हो के कोई मेहरबाँ हवा गुज़रे दयार-ए-हब्स में सदियों से घुट रहा हूँ मैं जिसे मिली है सज़ा हर्फ़-ए-हक़ सुनाने की सलीब-ए-लब पे वो ठहरी हुई सदा हूँ मैं खड़ा हुआ हूँ हरीफ़ों में सर झुकाए हुए कि अपने आप से अब के बहुत जुदा हूँ मैं न कोई अक्स-ए-मुनव्वर न मंज़र-ए-ख़ुश-रंग ये कैसे ख़्वाब के बिस्तर पे सो रहा हूँ मैं अजीब आँधी है ये जिस्म-ओ-जाँ की आँधी भी मुझे सँभाल बिखरने से डर रहा हूँ मैं कभी न छू सकी बाब-ए-असर दुआ मेरी अजीब क़हर-ए-मुसलसल में मुब्तला हूँ मैं मुझे बरसने की तौफ़ीक़ दे मिरे अल्लाह कि अब्र बन के ज़माने पे छा गया हूँ मैं न छू सकी मुझे हिर्स-ओ-हवस की परछाईं ख़ुदा का शुक्र क़नाअ'त से आश्ना हूँ मैं रफ़ूगरान-ए-हुनर 'नाज़' बे-नमक थे मगर फिर अपने ज़ख़्म को शादाब देखता हूँ मैं