हर क़दम इक ख़त-ए-ए'जाज़ में रक्खे हुए हैं वो रम-ओ-रफ़्त किस अंदाज़ में रक्खे हुए हैं उम्र भर उन के तआ'क़ुब में रहे और खुला ख़ाक-पैमाई को आग़ाज़ में रक्खे हुए हैं एक रस्मी सा तआ'रुफ़ था मुलाक़ात न थी और हम सादा उसे राज़ में रक्खे हुए हैं क़ुमरी-ओ-बुलबुल-ओ-ताऊस-ओ-रुबाब-ओ-नय-ओ-चंग सब उसी हुस्न को आवाज़ में रक्खे हुए हैं ये जो पलकों में दम-ए-शब हैं चले आए चराग़ किसी महताब के अंदाज़ में रक्खे हुए हैं वो रुख़-ए-हुस्न-ए-समाअत है किसी और तरफ़ हम अबस दर्द को आवाज़ में रक्खे हुए हैं