जीत बख़्शे जो चराग़ों को हवा ज़िंदाबाद उस पे क़ुर्बान चराग़ों की ज़िया ज़िंदाबाद मैं ने दुश्मन को महारत पे कोई दाद न दी मेरे अंदर से कोई बोल पड़ा ज़िंदाबाद उस मोहब्बत के पयम्बर से तक़ाबुल कैसा दश्त सौ बार जिसे कहता रहा ज़िंदाबाद घर का मालिक तो मिरे ज़ब्त पे ता'ना-ज़न था घर की दीवार ने पर मुझ से कहा ज़िंदाबाद जो तिरे जिस्म के औराक़ पढ़ा करती है रश्क-ए-ख़ुशबू है वो बे-मिस्ल क़बा ज़िंदाबाद बज़्म-ए-याराँ में मिरे फ़न पे है उँगली उट्ठी फिर मिरी फ़िक्र पे बोहतान लगा ज़िंदाबाद मर गया भूक से पर भीक का लुक़्मा न लिया मरने वाले तिरे किरदार-ओ-अना ज़िंदाबाद फ़ैसला मेरा शुऊ'री तो नहीं हो सकता जिस को थी मात हुई उस को लिखा ज़िंदाबाद कर ले मंज़ूर सना-ख़्वानी-ए-'काज़िम' को हुसैन तू भी ज़िंदा है तिरी कर्ब-ओ-बला ज़िंदाबाद