झमकते झूमते मौसम का धोका खा रहा हूँ मैं बहुत लहराए हैं बादल मगर प्यासा रहा हूँ मैं हुई जब धूप की बारिश मिरे सर पर तो क्या होगा दरख़्तों के घने सायों में भी सँवला रहा हूँ मैं वही कुछ कर रहा हूँ जो किया मेरे बुज़ुर्गों ने नए ज़ेहनों पे अपने तज्रबे बरसा रहा हूँ मैं ये तोहमत ख़ाक तोहमत है मिरे हम-जुर्म हम-सायो तुम्हारी उम्र में तुम से कहीं रुस्वा रहा हूँ मैं ख़याल आता है बाज़ारों की रौनक़ देख कर मुझ को भरे दरिया में तिनका बन के बहता जा रहा हूँ मैं तिरी आग़ोश छूटी तो मिली वो बद-दुआ' मुझ को कि अब अपनी ही बाँहों में सिमटता जा रहा हूँ मैं 'क़तील' अब तक नदामत है मुझे तर्क-ए-मोहब्बत पर ज़रा सा जुर्म कर के आज भी पछता रहा हूँ मैं