झिजक इज़हार-ए-अरमाँ की ब-आसानी नहीं जाती ख़ुद अपने शौक़ की दिल से पशेमानी नहीं जाती तड़प शीशे के टुकड़े भी उड़ा लेते हैं हीरे की मोहब्बत की नज़र जल्दी से पहचानी नहीं जाती उफ़ुक़ पर नूर रह जाता है सूरज डूबने पर भी कि दिल बुझ कर भी नज़रों की दरख़शानी नहीं जाती सू-ए-दिल आ के अब चश्म-ए-करम भी क्या बना लेगी शुआ-ए-मेहर से सहरा की वीरानी नहीं जाती ये बज़्म-ए-दैर-ओ-काबा है नहीं कुछ सेहन-ए-मय-ख़ाना ज़रा आवाज़ गूँजी और पहचानी नहीं जाती किसी के लुत्फ़-ए-बे-पायाँ ने कुछ यूँ सू-ए-दिल देखा कि अब ना-कर्दा जुर्मों की पशेमानी नहीं जाती तग़ाफ़ुल पर न जा उस के तग़ाफ़ुल एक धोका है निगाह-ए-दोस्त की तहरीक-ए-पिन्हानी नहीं जाती नज़र झूटी शबाब अंधा वो हुस्न इक नक़्श-ए-फ़ानी है हक़ीक़त है तो हो लेकिन अभी मानी नहीं जाती मयस्सर है हर इक ईमाँ में मुझ को ज़ौक़ का सज्दा कोई मज़हब भी हो बुनियाद-ए-इंसानी नहीं जाती नज़र जिस की तरफ़ कर के निगाहें फेर लेते हो क़यामत तक फिर उस दिल की परेशानी नहीं जाती न समझो ज़ब्त-ए-गिर्या से ख़ता पर मैं नहीं नादिम कि आँसू पोंछ लेने से पशेमानी नहीं जाती न पोंछो तजरबात-ए-ज़िंदगानी चोट लगती है नज़र अब दोस्त और दुश्मन की पहचानी नहीं जाती ज़माना करवटों पर करवटें लेता है और 'मुल्ला' तिरी अब तक वो ख़्वाब-आवर ग़ज़ल-ख़्वानी नहीं जाती