झिजक रहा हूँ उसे आश्कार करते हुए जो कश्मकश थी तिरा इंतिज़ार करते हुए कटीली धूप की शिद्दत को भी नज़र में रखो किसी दरख़्त को बे-बर्ग-ओ-बार करते हुए हवा के पाँव भी शल हो के रह गए अक्सर तिरे नगर की फ़सीलों को पार करते हुए यही हुआ कि समुंदर को पी के बैठ गई हमारी नाव सफ़र इख़्तियार करते हुए कहाँ वो ज़ात कि जिस को सुकून मिलता था तमाम राहतें हम पर निसार करते हुए