झूटा ये प्यार ऊपरी चाहत नहीं क़ुबूल इस बाब में कोई भी वज़ाहत नहीं क़ुबूल सादा हूँ मैं है दिल को मिरे सादगी अज़ीज़ दोनों को ख़ुद-नुमाई की आदत नहीं क़ुबूल अपना ज़मीर बेच के शोहरत अगर मिले बैठेगी झाग बन के वो शोहरत नहीं क़ुबूल जो चाहे नाम अपना लिखे आब-ए-ज़र के साथ मुझ को ये आब-ए-ज़र की इबारत नहीं क़ुबूल बे-शक ग़ज़ल छपे न छपे बिन लिए-दिए मुझ को सुख़न में ऐसी तिजारत नहीं क़ुबूल बेहतर यही है फ़र्श-ए-ज़मीं पर रहे नशिस्त पैसों से जो मिले वो सदारत नहीं क़ुबूल 'ख़ुसरव' किसी का आगे निकलना नहीं पसंद परछाईं की भी मुझ को क़यादत नहीं क़ुबूल