झूटे वादों पर तुम्हारी जाएँ क्या जानते हैं तुम को धोका खाएँ क्या पुर्सिश अपने क़त्ल की होने लगी दावर-ए-महशर को हम बतलाएँ क्या उन की महफ़िल हैरत-ए-आलम सही ग़ैर हम-पहलू जहाँ हो जाएँ क्या ख़ून-ए-दिल खाने से कुछ इंकार है जब नहीं ऐ लज़्ज़त-ए-ग़म खाएँ क्या नासेह-ए-मुश्फ़िक़ को समझाना पड़ा इस समझ पर तुम को वो समझाएँ क्या ग़ैर ने रह कर जहन्नम कर दिया हैं मुसलमाँ तेरे घर हम आएँ क्या हम से उन से बात क्या बाक़ी रही हम कहें क्या और वो फ़रमाएँ क्या है पशेमानी में इक़रार-ए-ख़ता क़त्ल कर के मुझ को वो पछताएँ क्या आएँगे फिर भी वही इशरत के दिन इंक़िलाब-ए-दहर से घबराएँ क्या मर ही कर उट्ठेंगे तेरे दर से हम आ के जब बैठे तो फिर उठ जाएँ क्या दिल को खोए एक मुद्दत हो गई ऐ 'असर' अब ढूँडने से पाएँ क्या