झूटी अना के बोझ को सर से उतार के इक बार देखते तो सही तुम पुकार के अब तक है मेरी साँस में ख़ुशबू बसी हुई आँखों में नक़्श हैं वही लम्हात प्यार के हैरत है उस ने कैसे सभी ख़त जला दिए लिक्खे हुए थे जिस में सभी लफ़्ज़ प्यार के जितना सिखा दिया है अकेले हयात ने अब मुंतज़िर नहीं हैं किसी ग़म-गुसार के जुज़्व-ए-बदन रहा था जो कल तक बिछड़ गया तन्हाइयों के ज़ह्र को ख़ूँ में उतार के