जी चाहा जिधर छोड़ दिया तीर अदा को चुटकी में उड़ाए हुए फिरते हैं क़ज़ा को सज्दों का भी मौक़ा न रहा अहल-ए-वफ़ा को फिर फिर के मिटाते हैं वो नक़्श-ए-कफ़-ए-पा को जब पाते हैं सर धुनते ही पाते हैं 'रसा' को समझाए कहाँ तक कोई इस मर्द-ए-ख़ुदा को यूँ हम ने छुपाई है तिरे वस्ल की हसरत जिस तरह छुपाता है ख़ता-वार ख़ता को अब छोड़ 'रसा' इश्क़-ए-बुताँ देख कहा मान कम्बख़्त तुझे मुँह भी दिखाना है ख़ुदा को