जी चाहता है शैख़ कि पगड़ी उतारिए और तान कर चटाख़ से एक धोल मारिए सोतों को पिछले पहर भला क्यूँ पुकारिए दरवाज़ा खुलने का नहीं घर को सिधारिए क्या सर्व अकड़ रहा खड़ा जूएबार पर टुक आप भी तो इस घड़ी सीना उभारिए ये कारख़ाना देखिए टुक आप ध्यान से बस सून खींच जाए यहाँ दम न मारिए नासेह ने मेरे हक़ में कहा अहल-ए-बज़्म से बिगड़ी हुई को आह कहाँ तक सँवारिए 'इंशा' ख़ुदा के फ़ज़्ल पे रखिए निगाह और दिन हँस के काट डालिए हिम्मत न हारिए