जी जाऊँ जो बंद नातिक़ा हो ख़ामोश कहीं ये बोलता हो जाँबाज़ जो तरद्दुद भी तिरा हो सौ बार मरे फिर उठ खड़ा हो ज़र्रे में हो नूर-ए-मेहर-वश तेरा जो करम हो क्या से क्या हो खुल जाएँ हज़ारों कूचा-ए-ज़ख़्म तलवार चले तो रास्ता हो ज़ुल्फ़ों पे जो उस के मर मिटा हूँ तुर्बत पे दरख़्त जाल का हो घड़ियों के हैं पुर-ग़ुबार शीशे मिट्टी कोई दिल न हो गया हो रंगीन हो क़बा-ए-तन लहू से जोगी हूँ लिबास गेरुआ हो बख़्शे जो फ़लक ग़म-ए-ज़माना ग़म-ख़्वार वो हूँ कि नाश्ता हो सानी है तिरा मुहाल ऐ बुत पैदा न ख़ुदा का दूसरा हो तन-ए-ख़ाक हो हूँ वो साफ़ तीनत मेला न कफ़न का रोंगटा हो वो बोसा-ए-लब मुझे कि दुश्नाम दरवेश हूँ कुछ मिले भला हो यूँ ऐ तप-ए-ग़म जला सरापा सर-ता-क़दम इक आबला हो ऐ दस्त-ए-ख़ुदा जो हाथ की है है 'शाद' शिकस्ता-पा नया हो