जी पर भी हम ने जब्र किया इख़्तियार तक जीते रहे अख़ीर दम-ए-इंतिज़ार तक किस को नसीब होते हैं फिर जल्सा-हा-ए-मय जीता है कौन देखिए अगली बहार तक उफ़-रे सितम कि बहर-ए-दुआ-ए-विसाल-ए-ग़ैर वो पाँव चल के आए हैं मेरे मज़ार तक तुम भी करोगे जब्र शब ओ रोज़ इस क़दर हम भी करेंगे सब्र मगर इख़्तियार तक शाकी नहीं मैं नख़वत-ए-गुल ही का ऐ 'वफ़ा' मुझ से चमन में नोक की लेते हैं ख़ार तक