जी तलक आतिश-ए-हिज्राँ में सँभाला न गया घर में सब कुछ था पे हम से तो निकाला न गया ओझल इस हस्ती के तिनके के यक़ीनी था पहाड़ ये पर-ए-काह ही पर नज़रों से टाला न गया गो कि देता था फ़लक मोल में दिल के दो-जहाँ इतनी क़ीमत पे तो इस माल को डाला न गया रख़्त बाँधा न किस अंदोह ओ ख़ुशी ने दिल से इक तिरे ग़म ही का इस घर से अटाला न गया क्या ज़र-ए-दाग़ न गर्दूं ने दिए 'क़ाएम' को इस क़लंदर का प इक रोज़ दिवाला न गया