जिन के गुनाह मेरी नज़र से निहाँ नहीं रहते हैं मुझ से दिल में ख़फ़ा किस क़दर वो लोग मंज़िल जिन्हें अज़ीज़ न रह-रव जिन्हें अज़ीज़ कहलाते हैं हमारे यहाँ राहबर वो लोग अंजाम-ए-कारवाँ था इसी बात से अयाँ मंज़िल थी जिन की और बने हम-सफ़र वो लोग अपना समझ सकें न जिन्हें ग़ैर कह सकें मिलते हैं हर क़दम पे सर-ए-रह-गुज़र वो लोग तेरा कलाम सुन के जो ख़ामोश हैं 'नज़ीर' उन का गिला न कह कि हैं अहल-ए-नज़र वो लोग