जिन को तौक़ीर-ए-रह-ओ-रस्म-ए-वफ़ा याद नहीं क्या गिला उन से करें जिन को ख़ुदा याद नहीं जाने आए भी थे ख़ुश्बू के संदेसे मुझ को जाने गुज़री थी दबे पाँव सबा याद नहीं आप ने साथ निभाने का किया था वा'दा इस पे कहते हैं वो हम से ब-ख़ुदा याद नहीं न रहा शम-ए-फ़रोज़ाँ में भी वो शो'ला-ए-इश्क़ और परवानों को मरने की अदा याद नहीं एक उम्मीद-ए-मसीहाई भी आख़िर कब तक फिर न कहना हमें आदाब-ए-वफ़ा याद नहीं शो'ला-ए-गुल से फ़ना हो गई शबनम 'अंजुम' मेरी हस्ती हुई क्यूँ ख़ाक ज़रा याद नहीं