जिन से हम छूट गए अब वो जहाँ कैसे हैं शाख़-ए-गुल कैसी है ख़ुश्बू के मकाँ कैसे हैं ऐ सबा तू तो उधर ही से गुज़रती होगी उस गली में मिरे पैरों के निशाँ कैसे हैं पत्थरों वाले वो इंसान वो बेहिस दर-ओ-बाम वो मकीं कैसे हैं शीशे के मकाँ कैसे हैं कहीं शबनम के शगूफ़े कहीं अंगारों के फूल आ के देखो मिरी यादों के जहाँ कैसे हैं कोई ज़ंजीर नहीं लायक़-ए-इज़हार-ए-जुनूँ अब वो ज़िंदानी-ए-अंदाज़-ए-बयाँ कैसे हैं ले के घर से जो निकलते थे जुनूँ की मशअल इस ज़माने में वो साहब-नज़राँ कैसे हैं याद जिन की हमें जीने भी न देगी 'राही' दुश्मन-ए-जाँ वो मसीहा-नफ़साँ कैसे हैं