जीना है ख़ूब औरों की ख़ातिर जिया करो इक-आध साँस ख़ुद भी तो लेते रहा करो क्या हर्ज है जो दिल की भी सुन लो कभी कभी यूँ अपने आप से न हमेशा लड़ा करो ये बार-ए-ज़ीस्त झेलते रहना है उम्र-भर अपनी थकन पे टिक के कभी सो लिया करो है बस-कि ख़ाक उड़ाने की आवारगी को खो रख़्त-ए-सफ़र में घर को भी बाँधे फिरा करो अफ़ई भी सो रहे हैं चमेली की छाँव में नौ-वारिद-ए-चमन हो सँभल कर चला करो कितना कहा था तुम से कि मत खेलो आग से अब जो सुलग पड़ी है तो चुपके जला करो