जीने में थी न नज़अ के रंज ओ मेहन में थी आशिक़ की एक बात जो दीवाना-पन में थी सादा वरक़ था बाहमा गुल-हा-ए-रंग-रंग तफ़्सीर जान पाक बयाज़-ए-कफ़न में थी बढ़ता था और ज़ौक़-ए-तलब बेकसी के साथ कुछ दिलकशी अजीब नवाह-ए-वतन में थी बीमार जब हैं करते हैं फ़रियाद चारागर क्या दास्तान-ए-दर्द सुकूत-ए-महन में थी कहता था चश्म-ए-शौक़ से वो आफ़्ताब-ए-हुस्न हल्की सी इक शुआ थी जो अंजुमन में थी कुछ इज़्तिराब-ए-इश्क़ का आलम न पूछिए बिजली तड़प रही थी कि जान इस बदन में थी किस से कहूँ कि थी वही गुल-हा-ए-रंग-रंग बिखरी हुई जो ख़ाक सवाद-ए-चमन में थी