जीने पे जो उकसाए वो उलझन भी नहीं है इस शहर में मेरा कोई दुश्मन भी नहीं है सूखे हुए कुछ फूल न पिघली हुई शमएँ अल्लाह वो सहरा कि जो मदफ़न भी नहीं है हमसाए की सूरत कोई देखे भी तो क्यूँकर दीवार वो हाइल है कि रौज़न भी नहीं है अब अपना जनाज़ा लिए बाज़ार में घूमो जाओगे कहाँ शहर में मदफ़न भी नहीं है ढूँडूँ तो कहाँ खोए हुए ज़ह्न को 'अफ़सर' हाथों में मिरे सोच का दामन भी नहीं है