जिस की तलब में उम्र का सौदा नहीं हुआ उस ख़्वाब का सराब भी अपना नहीं हुआ अपनी सलीब सर पे लिए चल रहे हैं लोग शहर-ए-सज़ा में कोई किसी का नहीं हुआ कहने को जी सँभल तो गया है मगर कहीं इक दर्द है कि जिस का मुदावा नहीं हुआ उस ने मिरे बग़ैर गुज़ारी है ज़िंदगी इस आगही का ज़हर गवारा नहीं हुआ अब भी है मो'तबर तो ख़ुदा की अता है ये वर्ना वफ़ा के नाम पे क्या क्या नहीं हुआ ऐ हर्फ़-ए-बारयाब तिरी ख़ैर पर वो लोग जिन पर दर-ए-क़ुबूल कभी वा नहीं हुआ