जिस को सब कहते हैं समुंदर है क़तरा-ए-अश्क-ए-दीदा-ए-तर है अबरू-ए-यार दिल का ख़ंजर है मिज़ा-ए-यार नोक-ए-नश्तर है चश्म-ए-आशिक़ से दो बहे दरिया एक तसनीम एक कौसर है ख़ाना-ए-दिल है ग़ैर से ख़ाली शौक़ से आओ आपका घर है क़तई आज फ़ैसला होगा तेरी तलवार है मिरा सर है अब तो धूनी रमा के बैठे हैं दर-ए-जानाँ पे अपना बिस्तर है तमअ' हर इक का दीन-ओ-ईमाँ है जिस को देखो वो बंदा-ए-ज़र है ख़ूब दिल खोल कर जफ़ा कर लो बंदा मुद्दत से इस का ख़ूगर है बाम पर जल्वा-गर है वो शायद कू-ए-जानाँ में शोर-ए-महशर है करता आलम को आह से बरहम लेक 'रा'ना' को यार का डर है